मुर्गी पालन से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास तेज


नई दिल्ली। कोरोना वायरस के प्रकोप के बाद पोल्ट्री उद्योग को लेकर फैली अफ़वाहों से हुए भारी नुकसान के बाद भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने घर-आंगन में मुर्गी पालन से देश की ग्रामीण लघु अर्थ व्यवस्था को मजबूत करने का प्रयास तेज कर दिया है। सरकार ने लॉकडाउन के कारण लोगों को घरों से बाहर निकालने पर पाबंदी लगा दी है लेकिन कृषि कार्यों और इससे संबद्ध क्षेत्रों को कुछ छूट दी गई है जिसका लाभ उठाते हुए आईसीएआर ने गांव के गरीब , भूमिहीन , लघु एवं सीमांत किसानों को देसी किस्म के उन्नत नस्ल के चूजे उपलब्ध कराना शुरू कर दिया है । आईसीएआर के उप महानिदेशक (कृषि विस्तार) ए के सिंह ने बताया कि गरीबों की अर्थव्यवस्था में तुरंत जान फूंकने के उद्देश्य से कृषि विज्ञान केन्द्र के माध्यम से कड़कनाथ , ग्राम प्रिया , राजश्री , श्रीनिधि , असिल और वनराजा नस्ल के चूजे उपलब्ध कराए जा रहे हैं। अलग-अलग क्षेत्र के अनुसार लोगों को जापानी बटेर, सुअर के बच्चे और मधुमक्खी के छत्ते भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं जिससे दो माह में ही उन्हें बिना कोई विशेष खर्च और परिश्रम किए आर्थिक लाभ मिलना शुरु हो जाएगा। डॉ. सिंह ने बताया कि किसानों को मुर्गियों के ऐसे किस्मों के चूजे उपलब्ध कराए जा रहे हैं जो न सिर्फ रंगीन , फुर्तीले , लड़ाकू , पोषक तत्वों से भरपूर, तेज वृद्धि दर वाले और रोग प्रतिरोधक क्षमता से लैस है बल्कि मांस और अंडे के लिए उपयुक्त है। इनके अंडे देसी मुर्गियों के अंडे की तरह रंगीन हैं जिसका मंडी में अधिक बाजार मूल्य मिलता है। अपने विशेष गुणों के कारण अत्यधिक दोहन का शिकार होने से एक समय विलुप्त होने के कगार पर पहुंचे कड़कनाथ का न केवल मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में विस्तार किया का रहा है बल्कि इस नस्ल को अब पूरे देश में उपलब्ध कराया जा रहा है ।
डॉ. सिंह ने बताया कि देसी नस्ल की मुर्गियां सालाना 60-70 अंडे देती हैं और इनका शारीरिक विकास भी कम होता है वहीं उन्नत नस्ल की ये मुर्गियां सालाना 160 से 180 अंडे देती है और इनमें से कुछ का वजन चार किलो से भी अधिक हो जाता है । किसानों को इस प्रकार की किस्में दी जा रही है जिसके खानपान के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं करनी होती है। वे घर के आसपास के खेत खलिहानों से अपने भोजन की व्यवस्था कर लेती हैं । घर के बचे-खुचे खाने से ही उनके आहार का काम चल जाता है । ब्रायलर को पोल्ट्री में पालने पर भारी खर्च करना पड़ता है और इसे रोग से बचाने के लिए टीकाकरण तथा कई अन्य प्रकार के खर्च करने पड़ते है। यह समयबद्ध तरीके से तैयार होता है लेकिन खर्च अधिक होता है । पिछले दिनों कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण फैलायी गयी अफ़वाहों से देश के अधिकांश क्षेत्रों में लोगों ने चिकन खाने से बचना शुरु कर दिया था जिसके कारण पोल्ट्री उद्योग को भारी नुकसान हुआ था । यही नहीं आवागमन पर रोक के कारण चूजे तैयार करने की प्रक्रिया को बंद कर दिया गया था जिसे फिर से शुरू होने में समय लगेगा।
डॉ. सिंह ने बताया कि कुछ स्थानों में लोग जापानी बटेर पालना चाहते है और वहां उसका बाजार भी है। ऐसे स्थानों पर लोगों को बटेर उपलब्ध कराये जा रहे हैं। पूर्वोत्तर क्षेत्र के लोगों को उनकी पसंद के अनुसार सुअर के बच्चे दिए जा रहे हैं। कुछ स्थानों पर किसानों को मधुमक्खी पालन से होने वाले फायदे की जानकारी दी जा रही है और इसके लिए उन्हें प्रशिक्षण तथा अन्य सुविधाएं दी जा रही है ।

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