2018: सत्ता-विरोधी लहर पर आज होगा फैसला


नई दिल्ली ।पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के अाज आने वाले नतीजों से संकेत मिलेगा कि बीजेपी की लीडरशिप वाली एनडीए सरकार के खिलाफ सत्ता-विरोधी लहर की शुरुआत हो चुकी है या नहीं। रिजल्ट्स से यह भी पता चलेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अभी तक कितना सपॉर्ट बेस बना हुआ है और बीजेपी का पारंपरिक गढ़ों से बाहर भी विस्तार हो रहा है या नहीं।
पिछले साल दिसंबर में गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद से लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में बीजेपी को जश्न मनाने के बहुत कम मौके मिले हैं। गुजरात चुनाव के बाद 13 संसदीय सीटों पर उपचुनाव हुए, जिनमें बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को सिर्फ तीन सीटों पर जीत मिली। वहीं, 22 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में वह सिर्फ 5 सीटें जीत पाई। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहां बीजेपी सत्ता में है, उनके नतीजों से पता चलेगा कि उपचुनाव के नतीजे महज इत्तेफाक थे या सचमुच बीजेपी के खिलाफ कोई बयार बह रही है।

निर्णायक जनादेश या अलायंस के दौर की वापसी?
पांच राज्यों के नतीजों से यह भी साफ हो जाएगा कि निर्णायक जनादेश का ट्रेंड बना रहेगा या लोग फिर गठबंधन सरकारों की तरफ लौटने को तैयार हैं। 2014 में जब बीजेपी तीन दशकों में अकेले दम पर बहुमत हासिल करने वाली पहली पार्टी बनी थी, तब माना गया था कि जनता केंद्र में एक पार्टी की सरकार चाहती है। कई राज्यों में भी ऐसे ही जनादेश आए, जिससे यह ट्रेंड मजबूत हुआ था। इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश में मार्च 2017 में हुए चुनाव के नतीजे सबसे ज्यादा चौंकाने वाले रहे। गुजरात चुनाव के बाद इस पर सवालिया निशान लगा था, जिसका जवाब आज आने वाले नतीजों से मिल जाएगा। लोकसभा चुनाव करीब हैं, इसलिए ये सवाल जरूर उठेंगे।

पांच राज्यों में हुए चुनाव से पहले जिस तरह प्रचार हुआ, उससे लगा कि सबकी नजर अगले साल के लोकसभा चुनाव पर है। 2008-09 और 2013-14 में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव का ट्रेंड लोकसभा में भी बना रहा था, लेकिन इस बार इसकी संभावना उतनी ज्यादा नहीं है। इस बार मोदी ‘एक्सपेरिमेंटल मोड’ में थे। तीन राज्यों में उनकी पार्टी की सरकार थी, इसलिए वह कैंपेन में यह देख रहे थे कि किन बातों का जनता पर असर होता है और किन बातों का नहीं। जिन मुद्दों का असर इन चुनावों में पड़ेगा, उन्हें आगामी लोकसभा चुनाव में मोदी और पार्टी प्रमुखता से उठा सकती है।

दो बातों पर रहेगा जोर
इसमें दो बातों पर जोर होगा। पहला, कांग्रेस के करप्शन को जोरशोर से उठाना और सबसे बड़े विपक्षी दल की वंशवादी राजनीति को निशाना बनाना। इसके साथ अति-राष्ट्रवादी और हिंदुत्व के मुद्दों को हवा दी जाएगी। इसके साथ बीजेपी यह भी दावा करेगी कि उसने वादे पूरे किए हैं। वह कहेगी कि पार्टी स्पष्ट जनादेश मिलने पर ही वादे पूरी कर सकती है। इसलिए विपक्षी अलायंस को पार्टी निशाना बनाएगी।

हालांकि, मोदी के लिए फिर से जनता की उम्मीद बढ़ाकर वोट हासिल करना आसान नहीं होगा। इसलिए यह डर भी दिखाया जाएगा कि अगर बीजेपी सत्ता में नहीं लौटती है तो देश की दुर्गति हो जाएगी। मोदी चौंकाने के लिए जाने जाते हैं। नोटबंदी से वह ऐसा कर चुके हैं। वह समाज के सबसे वंचित वर्ग से तकलीफ बर्दाश्त करने को कह चुके हैं और कुर्बानी मांग चुके हैं। प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद वह अपने भाषणों में अक्सर गरीबों का जिक्र करते रहे हैं। ऐसे में लोकसभा चुनाव को लेकर उनके पास नाटकीय ऐलान करने का समय होगा।

एक बड़ी बात यह है कि इन चुनावों में मोदी ने तीन राज्यों में सिर्फ 28 रैलियां कीं, जबकि राहुल गांधी ने 70 जनसभाएं कीं। यह काम ‘ब्रैंड मोदी’ को बचाने के लिए किया गया है। अगर रिजल्ट पार्टी के खिलाफ जाता है तो कहा जाएगा कि मोदी ने बहुत कम रैलियां की थीं। वहीं, अगर पार्टी के प्रदर्शन में सुधार होता है तो उसका श्रेय मोदी को दिया जाएगा। बीजेपी यह बात बखूबी समझती है कि 2019 लोकसभा चुनाव से पहले ब्रैंड मोदी पर आंच पड़ने का क्या मतलब हो सकता है।

राहुल के लिए इन चुनावों का क्या मतलब है?
अगर नतीजे अच्छे रहते हैं तो सितंबर 2017 के बाद राहुल का कद और बढ़ेगा। उन्हें विपक्ष अपना नेता मान लेगा, जो राष्ट्रीय स्तर पर मोदी को चुनौती दे सकते हैं। कांग्रेस की कोशिश इधर सीटें बढ़ाने के साथ नए अलायंस करने की रही है। अगर पार्टी सीटें बढ़ा पाती है तो जिन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस से सीधा मुकाबला नहीं है, वे चंद्रबाबू नायडू की तरह कांग्रेस की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ा सकते हैं। इन चुनावों से यूपी में संभावित अलायंस भी तय होगा। अगर कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो मायावती-अखिलेश-अजित सिंह को कांग्रेस को सम्मानजनक तरीके से अपने साथ जोड़ना होगा।

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