आस्था एंव संस्कृति के पारंम्परिक रंगो से सजता है कोण्डागांव का वार्षिक मेला

03 मार्च से शुरू होने वाले मेले की तैयांरिया शुरू

कोण्डागांव। बस्तर संभाग के अन्य मेलो में जिला कोण्डागांव के वार्षिक मेले का अपना अलग स्थान है युंॅ तो बस्तर मे मेले मंडई की ऐतिहासिकता सर्वविदित है कोण्डागांव मेंला भी इससे अछुता नही है यहां माघ शुक्ल पक्ष में होली से ठीक 5 दिन पहले भरने वाले इस मेले में आस्था और संस्कृति की अवधारणा मूर्त रूप में नजर आती है।

ग्रामीण देवी देवताओ का होता है महासंगम

जंहा तक मेले की ऐतिहासिकता की बात की जाये तो तत्कालीन बस्तर राजवंश द्वारा संभवत: अंचल के समस्त मांझी मुखिया परगना पटेलो में धार्मिक एकता बनाये रखने एंव उनमें समन्वय स्थापित करने के लिए ग्राम देवी देवताओ का वार्षिक महा सम्मेलन आयोजन करने के निर्देश की चर्चा की होती है। जिसके तहत क्षेत्र मे बसने वाले सभी समुदाय वर्ग के लोग एकजुट होकर धार्मिक कर्मकांड एंव प्रथाओ का पालन करना सुनिश्चित करें इस वार्षिक मेले में जिले के आस पास के ग्रामों जैसे पलारी, भीरागांव, बनजुगानी, भेलवापदर, फरसगांव, कोपाबेड़ा, डोंगरीपारा के ग्रामीण देवी देवता, माटीपुजारी, गांयताओं का पूरे प्राचीन विधि विधान के साथ महासंगम होता है जिले के विभिन्न समुदायो के देवी देवताओं में आराध्य मां दन्तेश्वरी के अलावा सियान देव, चौरासी देव, बुढाराव, जरही मावली, गपा गोसीन, देश मात्रा देवी, सेदंरी माता, दुलारदई, कुरलादई, परदेसीन, रेवागढ़ी, परमेश्वरी, राजाराव, झूलना राव, आंगा, कलार बुढ़ा, हिंगलाजीन माता, बाघा बसीन जैसे देवी देवता प्रमुख है इन सभी देवताओ का पूरे धार्मिक विधि विधान ढ़ोल नगाड़े, माहरी, तोड़ी ,मांदर एंव शंख ध्वनि के साथ भव्य पूजा अर्चना सम्पन्न होती है। इसके साथ ही संबधित गांवो के गांयता पुजारी कोटवार, सिरहाओ को भी सम्मानित किया जाता है। इन सब दैवीय अनुष्ठानो का प्रमुख केन्द्र जिला कोण्डागांव का बाजारपारा होता है। इस संबध में मावली माता मंदिर के पुजारी द्वारा जानकारी दी गई कि इस वर्ष मेला 03 मार्च से 08 मार्च तक आयोजित होगा और 02 मार्च को निशा जात्रा के साथ ही दैवीय आराधना प्रारंभ हो जायेगी पूर्व में इस कर्मकांड के तहत पशु बलि दिये जाने की परम्परा थी जिसे अब प्रतीकात्मक कर दिया गया है मेंले को निर्विघ्न सम्पन्न कराने हेतु एक अन्य लोक देवता चौरासी देव के माध्यम से बाजार स्थल के समस्त कोनो में कील ठुकवाने की रस्म अदा भी की जाती है मेले की तिथि अर्थात 03 मार्च को मुख्य पूजा स्थल मावली माता के मंदिर के पुजारियो द्वारा फूलो से सुसज्जित मंडप तैयार कर एक अन्य पुरातन मंदिर से एक अन्य इष्ट देवी बुढ़ी माता (डोकरी देव) के मंदिर में सभी एकत्रित होकर माता के पालकी को मुख्य मेला स्थल में लाया जाता है बुढ़ी माता (डोकरी देव) क्षेत्र के समस्त समुदायो की इष्ट देवी भी मानी जाती हे देवी को लाये जाने के पश्चात मुख्य पुजारियो एंव सिरहाओ द्वारा नगर के प्रमुख अधिकारी एंव जन प्रतिनिधि गणो की अगुवानी की जाती है सम्पूर्ण मेला स्थल की परिक्रमा भी परम्परागत दैवीय अनुष्ठान का एक प्रमुख अंग माना जाता है। इस क्रम में ग्राम पलारी से आई हुई माता डोली एंव लाट द्वारा सर्वप्रथम पूरी भव्यता के साथ भ्रमण किया जाता है तत्पश्चात उनके पीछे पीछे अन्य ग्रामो के देवी देवताओ एंव ग्रामो की डोलियां उनका अनुसरण करते हुए परिक्रमा करती है इनके साथ ही छतर एंव डंगई लाट धरे हुए उनके भक्त गण भी साथ चलते है पांरम्परिक आस्था के प्रतीक स्वरूप इन लाटो को काले एंव लाल झंडियो एंव फूलो से सजाया जाता है इस दौरान पूरा बाजार स्थल ढ़ोल, मोहरियों, मांदर की धुन से गुंजता रहता है इसे देखने के लिए लोगो की अपार भीड़ उमड़ पड़ती है। देवी देवताओ के परिक्रमा के बाद ÓÓजुझारीÓÓ खेलने का अनुष्ठान प्रारंभ होता है। इसके तहत डोलियों को कन्धे मे धरने वाले कहार स्वचालित होकर अटखेलियां करतें है यह माना जाता है कि इन सभी कहारो पर देवी माता आरूढ़ रहती है। लोक नृत्यों का अनुठा उल्लास बांधता है समां कुल 5 दिनो तक चलने वाले इस मेले का एक अन्य आर्कषण जिला मुख्यालय के आस पास के ग्रामों के नृतक दलो द्वारा पारम्परिक लोक नृत्यों की बेहतरीन प्रस्तुतियां भी है इनमें प्रचलित आदिम नृत्य जैसे कोंकरेग, रेला, हूल्की, माटी मांदरी, गेडी, गौर नृत्य शामिल है जिन्हे स्थानीय ग्राम कोकोड़ी, किबई बालेंगा, पाला, तेलंगा, खरगांव ,गोलावण्ड, के नर्तक दल प्रमुखता से प्रदर्शित करते हैं। इन नृत्यो में प्रचलित लोक धुन धार्मिक विश्वास उत्साह और उन्माद परिलक्षित होता है खुले मैदान मे रात्रि को वनांचल के युवक युवतियों द्वारा ढ़ोल, मांदरी की धुन पर संमवेत सामुहिक नृत्य उपस्थित लोगो को भी झूमने पर मजबूर कर देता है अंत में सभी नर्तक दलो को परम्परानुसार पारतोषिक दिये जाने का भी प्रचलन है।
वर्तमान में इस प्रसिद्ध मेले में अब आधुनिकता का भी सम्मिश्रण हो गया है इसके अंतर्गत सभी अत्याधुनिक प्रकार के झूले, मीना बाजार, सर्कस, मनोरंजन की वस्तुएं, स्टॉल मेले को आधुनिक स्वरूप प्रदान करते है जबकि आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र के निवासियों के पास अपनी फसल विक्रय के पश्चात वर्षभर के लिए अपने दैनिक उपयोग की सामग्रियाँ, खाने पीने से लेकर सजने संवरने के विभिन्न आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करने का एक मात्र माध्यम यह मेले पुरातनकाल से सदैव बने रहे है क्योंकि ये ग्रामीण अपने आस-पास के बाजारो में इन वस्तुओं तक सुलभ रुप से प्राप्त नहीं कर पाते है। मेले के दौरान देर रात तक लोगो का जमावाड़ा रहता है और लोग सहपरिवार मेले का आंनन्द उठाते है इस संबंध में जिला प्रशासन द्वारा मेले मे सभी आवश्यक व्यवस्थाये की जाती है और विभागो द्वारा स्टॉल लगाये जाते है। अंत में यह कहा जा सकता है कि मेले के माध्यम से विभिन्न समुदायों की सदभावना सृदढ़ होने के साथ साथ आने वाली पीढ़ी भी अपनी संस्कृति के स्वरूप को देखकर जीवन के नैतिक मुल्य और सांस्कृतिक सभ्यता से परिचित हो जाती है।

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