पति-पत्नी को यौन संबंध के लिए किया जा सकता है मजबूर?


नई दिल्ली  । अदालतें एक-दूसरे से विवाद में उलझे पति-पत्नी के बीच मेलजोल की एक और कोशिश करने के लिए कुछ मामलों में वैवाहिक रिश्ते के तहत यौन संबंध बहाल करने का निर्देश देती हैं। जो प्रावधान अदालतों को यह कदम उठाने की इजाजत देता है, उसे एक याचिका के जरिए चुनौती दी गई है।
इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच विचार करेगी। देश के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली दो जजों की बेंच ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए यह मसला एक बड़ी बेंच के पास भेज दिया। याचिका में कहा गया कि यह प्रावधान महिला विरोधी है क्योंकि यह महिला को उसकी इच्छा के विरुद्ध पति के पास जाने पर मजबूर करता है और उसके अधिकारों का उल्लंघन करता है।
2 छात्रों ने दाखिल की है याचिका
गुजरात नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्रों ओजस्व पाठक और मयंक गुप्ता ने यह पीआईएल दाखिल की थी। उनकी ओर से दलील पेश करते हुए सीनियर ऐडवोकेट संजय हेगड़े ने कहा कि सरसरी तौर पर यह कानून कोई लैंगिक भेदभाव करता नहीं दिखता, लेकिन यह दरअसल बहुत पितृसत्तात्मक है और यह सामंती इंग्लिश लॉ पर आधारित है, जो महिला को पति की निजी संपत्ति के रूप में देखता है। उन्होंने कहा, श्यह संविधान के अनुच्छेद 15(1) का उल्लंघन भी करता है।
अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है यह प्रावधान
हेगड़े ने कहा कि यह लीगल फ्रेमवर्क प्राइवेसी, व्यक्तिगत स्वायत्तता और व्यक्ति (महिला और पुरुष, दोनों) की गरिमा का उल्लंघन करता है, जिसका अधिकार अनुच्छेद 21 में दिया गया है। उन्होंने कहा कि यह महिला पर बोझ लाद देता है और इस तरह यह संविधान के अनुच्छेदों 14 और 15(1) का उल्लंघन करता है।
दलील: प्रावधान सामंती मानसिकता
पीआईएल में कहा गया कि भारत में किसी भी पर्सनल लॉ सिस्टम में वैवाहिक रिश्ते के तहत यौन संबंध का अधिकार बहाल करने की व्यवस्था नहीं है। इसमें कहा गया कि इसकी जड़ सामंती मिजाज वाले इंग्लिश लॉ में है और ब्रिटेन ने भी 1970 में वैवाहिक रिश्ते में यौन संबंध का अधिकार बहाल करने का प्रावधान खत्म कर दिया था। याचिका में हिंदू मैरिज एक्ट 1955 के सेक्शन 9, स्पेशल मैरिज ऐक्ट 1954 के सेक्शन 22 और कोड ऑफ सिविल प्रॉसिजर 1908 के ऑर्डर 21, रूल 32 और 33 की वैधता को चुनौती दी गई है। देश के मौजूदा कानूनों के तहत वैवाहिक रिश्ते में अगर किसी को यौन संबंध के अधिकार की बहाली चाहिए तो वह एक डिक्री हासिल कर सकता है, जिसमें उसके पति-पत्नी को उसके साथ रहने और उससे यौन संबंध बनाने का निर्देश दिया जाता है। अगर दूसरा पक्ष जानबूझकर इस डिक्री को न माने तो उसके खिलाफ प्रॉपर्टी जब्त करने जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। पीआईएल में कहा गया कि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से बनाई गई एक कमिटी और लॉ कमिशन ने यह प्रावधान रद्द करने की सिफारिश की है। 

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