कोमा में जि़ंदगी या शांति से मौत? सुप्रीम कोर्ट 13 जनवरी को हरीश राणा केस पर सुनाएगा फैसला



नई दिल्ली। क्या मौत का इंतज़ार करते हुए जीना दर्दनाक जि़ंदगी है या शांति से मौत? दुनिया की किसी भी कोर्ट के लिए यह फैसला देना मुश्किल है। लेकिन अगर हालात बहुत खराब हों, तो फैसले को टालना और भी मुश्किल हो जाता है। देश की सबसे बड़ी अदालत, सुप्रीम कोर्ट, 13 जनवरी को दोपहर 3 बजे फैसला सुनाएगी। यह फैसला इस बात का होगा कि मौत का इंतजार करते हुए दर्द भरी जिंदगी जी रहे एक नौजवान को शांति से मौत दी जाए या नहीं।

यह फैसला भले ही सुप्रीम कोर्ट का हो, लेकिन 13 जनवरी को इस नौजवान के माता-पिता को आखिरी बार कोर्ट में बुलाया गया है और उनकी राय मांगी गई है। एक मां चाहती है कि उसका बेटा शांति से मरे। अपने बेटे का दर्द बर्दाश्त न कर पाने की वजह से वह अपना दिल कड़ा करके भगवान से प्रार्थना करती है कि उसे इससे बचाए। लेकिन आज तक उसका बेटा इस दर्द से नहीं बच पाया है। इसलिए उसने निराश होकर कोर्ट के सामने हाथ फैलाए हैं।

यह एक ऐसे नौजवान की कहानी है जो हर दिन मौत से लड़ता है। उसका नाम हरीश है, छह गुणा चार का बिस्तर ही उसकी पूरी जि़ंदगी बन गया है। इतना कुछ जीने के बावजूद, पिछले 12 सालों से वह इसे अपनी नंगी आँखों से नहीं देख पा रहा है। क्योंकि वह न तो उठ सकता है, न चल सकता है। न ही अपने शरीर को हिला सकता है। न हंस सकता है, न रो सकता है। दर्द से तड़पता यह नौजवान किसी को अपना दुख बता भी नहीं सकता। आसान शब्दों में कहें तो वह एक जि़ंदा लाश बन गया है। उसका दिल लाश की तरह धड़क रहा है लेकिन वह जी नहीं सकता।


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